संसार का हर व्यक्ति कंज्यूमर है। वो अपने जन्म के दिन से ही किसी न किसी वस्तु का उपभोग शुरू कर देता है। इसमें कई बार हमें धोखा मिलता है, तो कई बार भरोसा कर हम ठगे भी जाते हैं। ऐसे में हम इस सीरीज़ में आपको नए उपभोक्ता कानून के बारे में जानकारी दे रहे हैं।
राजस्थान के अलवर के रहने वाले रजनीकांत शर्मा ने भारत-तिब्बत सीमा पुलिस बल (आईटीबीपी) में डेंटल सर्जन की पोस्ट के लिए आवेदन किया था। आईटीबीपी ने 10 अप्रैल, 2010 को उन्हें स्पीड पोस्ट से पत्र भेजकर 13 अप्रैल 2010 को इंटरव्यू के लिए आने को कहा। लेेकिन, रजनीकांत शर्मा को यह पत्र 17 अप्रैल को मिला। जिससे शर्मा इंटरव्यू में शामिल नहीं हो सके। इस पर उन्होंने डाक विभाग की लापरवाही के खिलाफ अलवर के जिला उपभोक्ता फोरम में शिकायत की और मुआवजे की मांग की। जिला उपभोक्ता फोरम ने 30 जून 2011 को डाक विभाग को आदेश दिया कि वह रजनीकांत शर्मा को मुआवजे के तौर पर 10,000 रुपए एक माह के भीतर दे। देरी होने पर उसे 12 फीसदी ब्याज भी देना पड़ेगा। इस आदेश को डाक विभाग ने जयपुर के राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग में चुनौती दी। राज्य आयोग ने 19 अगस्त 2011 को इस अपील को खारिज कर दिया। डाक विभाग ने 23 मई 2012 को एक बार फिर रिवीजन याचिका दायर की, लेकिन राज्य आयोग ने उसे भी नामंजूर कर दिया। इसके बाद विभाग ने इस आदेश को राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयाेग में चुनौती दी। यहां पर डाक विभाग की ओर से उनके वकील पेश हुए, लेकिन राजनीकांत शर्मा की ओर से कोई भी पेश नहीं हुआ।
डाक विभाग के अधिवक्ता ने अपने तर्क रखते हुए भारतीय पोस्ट ऑफिस एक्ट, 1898 के सेक्शन 6 का जिक्र करते हुए कहा कि किसी भी डाक में देरी के लिए डाक विभाग को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। उन्होंने कहा कि डाक विभाग द्वारा दी जाने वाली सेवाओं की किसी कूरियर कंपनी से तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि डाक विभाग उन दूरस्थ क्षेत्रों तक डाक पहुंचाने का काम करता है, जहां ये कूरियर कंपनियां जाना पसंद नहीं करतीं। उन्होंने साथ ही कहा कि यह सेक्शन स्पीड पोस्ट पर भी समान रूप से लागू होता है। अपनी बात के समर्थन में उन्होंने इसी आयोग द्वारा पोस्ट मास्टर, इंफाल और जामिनी देवी सगोलबंद के मामले में दिए गए फैसले को उदाहरण के तौर पर पेश किया। जिसमें कहा गया था कि शिकायतकर्ता को केवल नुकसान या डाक न मिलने के आरोपों के आधार पर कोई राहत नहीं दी जा सकती। एक डाककर्मी को तभी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जब यह साबित हो कि उसने जान-बूझकर या धोखा देने की नीयत से संबंधित डाक को डिलीवर नहीं किया। इस मामले में भी डाक में देरी न तो जान-बूझकर की गई है और न ही धोखा देने की नीयत से ऐसा किया गया। इसलिए शिकायत को खारिज कर दिया जाना चाहिए। उन्होंने साथ ही कहा कि उपभोक्ता संरक्षण कानून, 1986 के आधार पर जिला फोरम और राज्य आयोग स्पीड पोस्ट के खिलाफ शिकायत नहीं सुन सकते।
राष्ट्रीय आयोग के अध्यक्ष प्रेम नारायण ने 25 मार्च 2019 को दिए फैसले में कहा कि पोस्ट मास्टर, इंफाल और जामिनी देवी सगोलबंद का मामला रजिस्टर्ड पोस्ट से जुड़ा हुआ था न कि स्पीड पोस्ट से। यह स्पष्ट है कि स्पीड पोस्ट एक खास सेवा है, जिसमें डाक विभाग दावा करता है कि वह तय समय के भीतर डाक पहुंचाता है।
जहां तक सेक्शन 6 का सवाल है तो डॉ. रवि अग्रवाल व स्पीड पोस्ट राजस्थान के मामले में साफ कहा गया है कि स्पीड पोस्ट जैसी द्रुतगति वाली योजनाओं पर यह सेक्शन लागू नहीं होता है, क्योंकि इसमें खुद डाक विभाग एक खास समय के भीतर डिलीवरी की जिम्मेदारी लेता है। इसके साथ ही विभाग स्पीड पोस्ट के डिलीवर न होने, गलत जगह डिलीवर होने या देर से डिलीवर होने पर रिफंड की जिम्मेदारी भी लेता है। इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखकर यह अपील नामंजूर कर दी गई।