पुराने समय में जब भी साइकिल की घंटी सुनाई देती थी तो लोगों को आभास हो जाता था की उनकी तरफ डाकिया आ रहा है। लोगों में उत्साह भर जाता था कि जरूर उनका पत्र आया होगा। जिसका भी पत्र आता वो उसे रोक लेता और पत्र खोलकर सुनाने को कहता। इन पत्रों में लोगो की भावनाएं ,संवेदनायें तथा ख़ुशी भरी होती थी। वो वही डाकिये से पत्र लिखवाते और उसको भेजने के लिए बोल देते। उस समय पत्र ,पोस्टकार्ड और अन्तर्देशीय पत्रों का बहुत प्रभाव था ,पार्सल तो कोई इक्का दुक्का ही आता जाता था। डाकिया एक तरह से परिवार का सदस्य होता था। उसे सबके सुख दुःख की खबर मालूम होती थी।
देश की सीमा पर तैनात सिपाहियों का मनोबल भी चिट्ठियों से बढ़ता था। जब उनके परिवार वाले घर से सकुशल समाचार की चिट्ठी सीमा पर भेजते थे।
डिज़िटल युग का डाकिया
अब सवाल यह है कि क्या डाकिया अब भी वही पहले वाला डाकिया है ? तो इसका जवाब ना होगा क्योंकि बदलते डिजिटल युग ने डाकिये को भी बदल दिया है। अब उसके पास पहले की तरह वो लोगो की भावनाएं भरी चिट्ठी नहीं आती। लोगो के पास समय नहीं रहा है। चिट्ठियों की जगह मोबाइल ने ले ली है। पोस्टमैन की साइकिल पर पार्सलों का बोझ बढ़ गया है। अब डाकिये को लोग परिवार का सदस्य समझना तो दूर उसको जानते भी नहीं है। पोस्टमैन के पास अब व्यक्तिगत चिट्ठी तो आती ही नहीं है अब केवल बिज़नेस का काम रह गया है। लोग पोस्टमैन को कोरियर वाला सम्बोधित करने लगें हैं। बढ़ते काम के कारण डाकिये को भी लोगो के पास रुकने का समय नहीं रहा।
तो क्यों न एक पहल की शुरुआत करें और लोगो को वही चिट्ठिओं का पुराना महत्व बताएं। और उन्हें चिट्ठी लिखने के लिए प्रेरित करें। क्योंकि चिट्ठी की भावनाओं का अपना अलग ही महत्व होता है।
इस पहल की शुरुआत हम अगली पोस्ट में बताएँगे। आपके अमूल्य विचारों की प्रतीक्षा रहेगी।